
विजय श्रीवास्तव
-लोकतंत्र के चारों स्तम्भ को बेटियों की रक्षा करने पर मंथन करने की जरूरत
-बेटी की सुरक्षा जैसे मुद्दे पर भी पार्टियाॅ एकमत नहीं
-1 जनवरी से 30 जून तक के बीच देश में 24,212 बलात्कार की घटनाएं
वाराणसी। आखिर कब तक हमारी बेटिया मौत से जंग लडेगी। दिन प्रतिदिन बेटियों के प्रति बढ रही दरिंदगी, छेडछाड़ व बलात्कार की घटनाओं ने आज पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। यक्ष प्रश्न आज यह ही है कि क्या हमारी बेटियों के भाग्य में अब दरिंदगी, दुख, बिना गलती की सजा, पश्चाताप, घुट-घुट कर जीना ही लिखा है। क्या अब बेटी का पिता बनना अभिशाप हो गया है। आज यह तमाम प्रश्न आज उस हर उस व्यक्ति से जुडा है जो समाज के प्रति, परिवार के प्रति संवेदनशील है। आज अगर सीधे शब्दों में यह कहा जाए कि लोकतंत्र के चारों स्तम्भ आज हमारी बेटियों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। आकाश से पाताल तक दुश्मनों से रक्षा करने वाला देश आज अपने बेटियों की रक्षा करने में लाचार हैै।
उन्नाव पीडिता भी आखिरकार मौत की जंग हार गयी। निर्भया, दिशा सहित न जाने कितने बेटियों ने इसी तरह से मौत की जंग हार गयीं। इसके लिए उन परिवारों व कुछ चन्द लोंगो को छोड लोकतंत्र के चारों स्तम्भ के सेहत पर कोई फर्क नहीं पडा। दो-चार दिन बाद हम फिर या कहें देश फिर से एनआरसी, रामजन्मभूमि विवाद, धारा 370, चुनाव उठापटक आदि मुद्दे में उलझ कर रह जाता हैं। आखिर कब तक ऐसा चलेगा। इसके लिए हमारी सरकारें व न्यायपालिका क्यों नहीं बैठ कर सोचती हैं ? आखिर कब हमारी सरकारें दलगत राजनीति से उपर उठ कर इस मुद्दे पर सोचेंगी ? आज सत्ता के लोग जब विपक्ष में होते हैं तो उनकी भाषा कुछ और होती है और जब वहीं सत्ता में होते हैं तो उनकी सुर पूरी तरह से बदल जाते हैं। सबसे ताज्जुब होता हैं जब सत्ता पक्ष की भी अधिकतर महिला सासंद व विधायक भी ऐसे समय में चुप्पी साध लेती हैं या सीधे शब्दों में यह कहा जाए कि कुर्सी की लालच उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर देती है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज इस तरह के दो काण्ड में फंसे एक विधायक व एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री के खिलाफ गुस्सा देखने को मिलता। मगर ऐसा नहीं हुआ। जिसका नतीजा आज ऐसे असामाजिक तत्वों का गुण्डागर्दी सर पर चढ कर बोल रहा है। तभी तो एक डाक्टर को जहां बलात्कार के बाद जिन्दा जला दिया गया वहीं दूसरे उन्नाव पीडिता को कोर्ट जाते समय उसे आरोपियों ने उसे मारपीट कर जिन्दा जला दिया। दिसम्बर 2018 में बलात्कार की घटना के बाद मार्च में कोर्ट के आदेश पर मुकदमा दर्ज होता है। जबकि उस समय दिसम्बर में ही लड़की ने थाने में मुकदमा दर्ज कराने पहुंची थी। अगर पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर तहकीकात किया होता तो शायद आज वह लड़की जिन्दा होती। क्या इसके लिए उस समय के थाना प्रभारी व स्टाफ इसके लिए दोषी नहीं है ? आज उस लड़की को मौत के मुंह में ढकेलने के लिए उस समय के तत्कालीन थाना प्रभारी भी पूरी तरह से दोषी है और उन्हें भी इस मौत के लिए उतना ही जिम्मेदार माना जाना चाहिए, जितना आज पकडे़ गये अन्य आरोपी।
आज इस तरह छेड़खानी व बलात्कार के मामलों में 40 से 50 प्रतिशत लोग समाजिक प्रतिष्ठा, भय, बदलामी आदि के चलते रिपोर्ट दर्ज कराने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते और शेष जाते हैं तो उन्हें पहले थाना के हमारें माननीय थानाप्रभारी व उनके मातहतों से जिस तरह के प्रश्नों से रूबरू होना पडता है वह मैं एक पत्रकार होने के नाते देखा है। जिसके चलते काफी संख्या में ऐसी पीड़िता जंग लड़ने से पहले ही मैदान छोड़ देती हैं। 20 से 25 प्रतिशत ही ऐसी होती हैं जो इस लडाई को अपने स्वाभिमान से जोड़ कर देखती हैं और लड़ती हैं लेकिन उनके साथ क्या होता हैं। हमनें उन्नाव पीड़िता के साथ देख लिया। जिसे जेल से छुटने के बाद सबों ने जिन्दा जला दिया। इससे बढ कर क्रूरता व दरिंदगी और क्या हो सकती हैं। अब कब हमारें सत्ता में बैठे लोग जागेंगे। डाक्टर के साथ हैवानियत के बाद हत्या के बाद देश में आए उबाल का असर ही रहा कि चारों आरोपी को पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद चारों को घटना स्थल पर शीन रिएक्टिवेट कराने के दौरान पुलिस ने एनकाउन्टर कर दिया। जिसको लेकर आज पूरा देश दो खेमा में बट गया है। एक खेमा इसे उचित नहीं मानता जबकि दूसरा खेमा आज इसे उचित ठहरा रहा है। अगर हम आत्ममंथन करें तो क्या इस घटना ने आज हमें न्याय प्रणाली पर सोचनें पर विवश नहीं कर दिया है। ऐसे मुद्दों पर जहां पीड़िता व उसके परिवार के लिए एक-एक दिन जीना मुश्किल होता है, उस पर उनके साथ अपराध करने वाले सरकारी मेहमान बन कर जेल या बाहर होते हेैं। क्या ऐसे अपराधों में समय सीमा तय नहीं होनी चाहिए। आज निर्भया कांड को हुए सात वर्ष गुजर चुके हैं फिर भी उनके अपराधी जेल में हैं। आखिर कब उनके परिवार वालों को न्याय मिलेगा।
मौजूदा सरकार जहां जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटानें, रामजन्म भूमि मुद्दा, एनआरसी लागू करने के लिए जितना तत्पर व साहसी कदम उठाने की क्षमता रखती हैं तो आखिर क्यों बेटियों की रक्षा के लिए सख्त से सख्त कदम नहीं उठा पा रही है। क्या सरकारें केवल ‘‘बेटी बचाओं-बेटी पढाओं‘‘ का नारा देकर अपने उत्तरदायित्व को पूरा करना चाहती है। क्या उसकी रक्षा करना उनका दायित्व नहीं है। विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की वारदातों को स्वंय संज्ञान में लेते हुए सभी राज्य के कोर्ट से जब इस तरह के आकडें मागें तो वह बेहद चैकाने वाले रहे। केवल 1 जनवरी से 30 जून 2019 तक के बीच केवल 6 माह में पूरे देश में 24,212 बलात्कार की घटनाए दर्ज की गयी। यानि एक महिने में 4000 और एक दिन में 130 बलात्कार की घटनाएं आज देश में हो रही हैं। यह आकड़ा आज पूरे देश के हर उस परिवार को जिसके घर में बेटियाॅ हैं, डराने के लिए काफी है। क्या इस पर आज न्याय प्रणाली को और मजबूत करने की जरूरत नहीं है। ऐसे जघन्य अपराधों के लिए अब समय सीमा तय करने की जरूरत आ चुकी है। जिससे जल्द से जल्द इस तरह की घटनाओं से जूझ रही पीड़िता व उनके परिवार को जल्द से जल्द मुक्ति मिल सके।