पंडित प्रसाद दीक्षित
न्यासी एवं ज्योतिषाचार्य
श्री काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी
-प्रदोष व्रत पूजन व विधान व्रत कथा
वाराणसी। गुरुवार प्रदोष व्रत व मास शिवरात्रि व्रत का विषेश महत्व है। शिवरात्रि का अर्थ जिसका शिव तत्व के साथ घनिष्ठ संबंध है। भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को मास शिवरात्रि कहते हैं। शिव का अभिषेक एवं जागरण ही इस व्रत की विशेषता है।
भगवान शिव के व्रत श्रृंखला में प्रदोष व्रत का विशेष महत्व होता है। यदि प्रदोष व्रत सोमवार को पड़े तो इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है। अपने दुख -दरिद्रता को दूर करने के लिए प्रदोष काल में प्रदोष व्रत पूजन करने का विधान है। प्रदोष व्रत संबंधित कथाएं इस प्रकार है-
इस पुण्य व्रत का अनुष्ठान कर कोटि-कोटि भवसागर के दुख बड़वानल को निष्प्रभ बनाने में सफल हो चुके हैं। फिर भी इसका प्राचीन काल में शुभ संस्कार संपन्ना एक दरिद्र ब्राह्मणी किसी ग्राम में निवास करती थी। संत एवं अतिथि सेवा में उसका मन स्वाभाविक रूप में प्रमोद प्राप्त करता था। उसके दो पुत्र थे। जिनका परिपालन वह अत्यंत प्रीतिपूर्वक करती थी। पूर्वकृत पुण्योदय से एक दिन भक्त शिरोमणि शांडिल्य घूमते-घामते ग्राम में आ पहुंचे। कोमल चित कृपालु मुनि ने अपने उपदेश क्रम में भगवान शिव की औघड़दानी स्वभाव और उनकी गुलावली का विस्तृत वर्णन किया। ब्राह्मणी की चित्रभूमि तो पहले से ही भावभरी थी। ऋषि के वचनों ने उसे भक्ति को और बढ़ा दिया। अपने पुत्रों को महर्षि के चरणों में समर्पित करते हुए उसने निवेदन किया! हे मुनीश्वर मेरे दोनों पुत्र हैं। इनमें से एक मेरा पुत्र है और दूसरा मेरा औरस पुत्र है। अपनी कृपा दृष्टि से इनका कल्याण कीजिए। मेरे पुत्र का नाम शुचिव्रत है और मेरे पालित पुत्र राजसुत है और इसका नाम धर्मगुप्त है। अपनी कृपा दृष्टि से इनका कल्याण कीजिए। ब्राम्हणी के सद्भावना से प्रसन्न ऋषि ने उन दोनों को वर्षपर्यंत शिवार्चन का परामर्श देकर व्रत विषयक संपूर्ण नियमों को समझा दिया और शिव शिव जपते हुए अपने गंतव्य स्थल की ओर प्रस्थान कर गए। कुछ ही क्षणों का यह संयोग स्वाति नक्षत्र की बूंदों की तरह पुण्य पद हुआ। गुरुवर की भाव मूर्ति और उनके श्री चरणों का ध्यान करते हुए वे तीनों एक मंदिर में जाकर शिवार्चन का सात्विक का आनंद प्राप्त करने लगे। गुरु के उद्देश्य उनके ज्ञान चक्षु खुल गए थे।
पूजा अनुष्ठान करते हुए उनकी 4 माह व्यतीत हो गए। एक दिन सूची व्रत अकेले ही गंगा तट पर स्नान करने गया और नदी की चंचल लहरों में जल क्रीड़ा करने लगा। उसी समय नदी की धारा में बहता हुआ एक स्वर्ण कलश उसे दिखाई दिया तैरकर सूची शुचिव्रत ने उसको उठा लिया और आनंदमग्न होता हुआ अपनी मां के पास आया। भावविह्वल उसने अपनी मां से कहा देखो मां आज मैं क्या लाया हूं। अब हम लोगों के कष्ट मिट जाएंगे। देवाधिदेव शंकर जी की करुणा अपार है। उस रत्न भरे कलश को देखकर ब्राह्मणी का खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने शुचिव्रत से कहा देखो पुत्र इस धनराशि को तुम दोनों आपस में बांट लो। पुत्र ने माता की आदेश को मान लिया किंतु राजसूत ने माता से से आग्रह किया हे दयामई मां ! भाई शुचिव्रत को यह धन उसके पुण्य परिपाकवश प्राप्त हुआ है इसलिए इस धन पर उसका ही अधिकार है। मैं अपनी निर्धनता में ही संतुष्ट हूं। शिवचरण अनुराग से बढ़कर कोई संपत्ति नहीं है। जैसी तुम्हारी इच्छा कहां पर माता ने उसके निश्चय में कोई बाधा नहीं डाली। कालांतर में वसंत ऋतु के होने पर दोनों भाई एक दिन श्री का अवलोकन करते हुए बहुत दूर तक निकल गए। वहां उन्होंने देखा कि हजारों गंधर्व कन्या नृत्य संगीत इत्यादि कर रही हैं तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। शुचिव्रत ने कहा की हम लोगों को यहां नहीं ठहरना चाहिए। राजपुत्र ने उसके परामर्श को नकार दिया। वह अकेले ही मुस्कुराते हुए उनके समूह में चला गया। उनकी राजकुमारी को उसके ऊपर अभिभूत हो उठी। उसने अपनी सहेलियों को आगे बढ़कर वन में जाने को कहा। उनके चले जाने के बाद उसने राजकुमार को आसन प्रदान कर उससे परिचय विषयक प्रश्न किया।
राजकुमार ने गंधर्व कन्या को अपनी स्थिति से अवगत कराते हुए कहा मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूं। मेरे माता पिता दिवंगत हो चुके हैं। मैं जंगल में अपनी माता के साथ जीवन यापन कर रहा हूं। वृतांत जानकर गंधर्व राजकन्या प्रसन्न हो गई और उसने उससे विवाह विषयक अपनी दशा प्रकट करते हुए कहा मैं विद्रूप नामक गंधर्व की पुत्री अंशुमति हूं। मेरे चित्र में आप की छवि बस गई है, अतः मैं आपकी चीरसंगिनी बनना चाहती हूं। राजकुमार उसका प्रेम प्रस्ताव सुनकर प्रसन्न तो हुआ किंतु उसने गंधर्व कन्या से कहा देवी आपका प्रस्ताव मधुर तो है किंतु कहां आप गंधर्व कन्या और कहां मैं एक निर्वासित राजकुमार। दूसरा वैवाहिक संबंध माता-पिता की सहमति से संपन्न होना चाहिए। धर्म की अनुमति लेकर ही विवाह करेंगे। उसने अपने गले का हार राजकुमार को पहनाते हुए कहा हे पुरुषपर्वत कल आप इसी समय यहां उपस्थित हो मैं पिताजी के साथ चली आऊंगी।
दूसरे दिन शुचिव्रत उसकी माता राजकुमार के वहां पहुंचने पर गंधर्वराज ने अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराते हुए राजकुमार से कहा पुत्र चिंता मत करो भगवान शंकर ने मुझे तुम्हारी सहायता करने का आदेश दिया है। तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है। मैं सब प्रकार से तुम्हारी सहायता करूंगा। हर्ष गदगद राजकुमार और उसकी ब्राह्मणी माता ने गंधर्वराज का आभार माना और शिव कृपा से राजकुमार ने अपना वैभव पुनः प्राप्त कर लिया। उसने शुचिव्रत को अपना मंत्री बना लिया तथा अपनी पालिका माता को राजमाता के पद पर सुशोभित किया। इसलिए कहा गया है कि प्रदोष के दिन व्रत पूजन करने से अपने दुख दरिद्रता से पूर्ण रुप से मुक्ति पाया जा सकता है। श्रावण मास में तो प्रदोष का अत्यधिक महत्व बढ़ जाता है। ऐसे में प्रदोष के दिन अवश्य व्रत करें तथा प्रदोष काल में भगवान शिव की पूजन से सर्वाधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा कम ही देखा गया है जब श्रावण मास में प्रदोष एवं मास शिवरात्रि का संयोग एक ही दिन हो। इस उत्तम योग का भक्तगण भगवान शिव की पूजन कर सर्वश्रेष्ठ लाभ प्राप्त कर सकते हैं।