
पंडित प्रसाद दीक्षित, ज्योतिषाचार्य एवं पूर्व ट्रस्टी श्री काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी
-परशुराम जयंती भी 14 मई को
-अक्षय तृतीया को लोग सोना खरीदते हैं
वाराणसी। अक्षय तृतीया एक ऐसी तिथि है जिस दिन कोई शुभ कार्य करने व कोई वस्तु खरीदने के लिए कोई शुभ महुर्त देखने की जरूरत नहीं होती है। वैस अक्षय तृतीया के दिन लोग सोना खरीदते हैं। वैशाख मास शुक्लपक्ष की तृतीया को मनाए जाने वाला अक्षय तृतीया परलोक में बहुश्रुत और बहुमान्य है। विष्णु धर्मसूत्र, मत्स्य पुराण, नारद पुराण तथा भविष्य पुराण आदि पुराणों में इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है तथा इस व्रत की कई कथाएं भी हैं।
सनातनधर्मी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। तृतीया को दिए गए दान और किए गए स्नान, जप, हवन आदि कर्मों का शुभ और अनंत फल मिलता है । भविष्य पुराण के अनुसार सभी कर्मों का फल अक्षय हो जाता है, इसीलिए इसका नाम अक्षय पड़ा है । यदि यह तृतीया कृतिका नक्षत्र से युक्त हो तो विशेष फलदायिनी होती है । भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती हैय क्योंकि कृतयुग (सतयुग) – का कल्पभेद से त्रेतायुग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है । इसमें जल से भरे कलश, पंखे, चरणपादुका ( खड़ाऊं ), जूता, छाता, गाय, भूमि, स्वर्णपात्र आदि का दान पुण्य कार्य माना गया है । इस दान के पीछे यह लोकविश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा वे समस्त वस्तुएं स्वर्ग में गर्मी की ऋतु में प्राप्त होंगी स इस व्रत में घड़ा, कुल्लड़, सकोरा आदि रखकर पूजा की जाती है । आज के दिन ही नर-नारायण, परशुराम और हायग्रीव का अवतार हुआ था, इसीलिए इनकी जयंतिया भी अक्षय तृतीया को मनाई जाती है ।
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परशुराम जयंती का महत्व
भगवान परशुराम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं । इनकी गणना दशावताओं में होती है । वैशाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम पहर में वायुमंडल में उच्च के 6 ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ है । इस स्थिति को प्रदोषव्यापिनी रूप में ग्रहण करना चाहिएय क्योंकि भगवान परशुराम का प्राकट्यकाल प्रदोषकाल ही है । भगवान परशुराम महर्षि जमदग्नि के पुत्र थे । पुत्र उत्पत्ति के निमित्त इनकी माता तथा विश्वामित्र की माता को प्रसाद मिला था जो संयोगवश आपस में बदल गया था । इससे रेणुका पुत्र परशुराम जी ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे, जबकि विश्वामित्र जी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर भी ब्रह्मर्षि हो गए ।
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जिस समय इनका अवतार हुआ था उस समय पृथ्वी पर दुष्ट क्षत्रिय राजाओं का बाहुल्य हो गया था । उन्हीं में से एक सहस्त्रार्जुन ने इनके पिता जमदग्नि का वध कर दिया था । जिससे क्रुद्ध होकर परशुराम जी ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं से मुक्त किया । भगवान शिव के दिए परशु (फरसे) को धारण करने के कारण इनका नाम परशुराम पड़ा । व्रत के दिन व्रती नित्यकर्म से निवृत्त होकर प्रातः स्नान करके सूर्यास्त तक मौन रहे और सांयकाल में पुनः स्नान करके भगवान परशुराम की मूर्ति का षोडशोपचार पूजन करें तथा मंत्र से अर्घ्य दें । रात्रि जागरण कर इस व्रत में श्री राम मंत्र का जप करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है स ऐसा करने से मरणोपरांत बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है
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